हस्थिनापुर, दुर्योधन, युधिष्ठिर और महाभारत के बारे में आप सब जानते हैं परंतु महाभारत में एक बात का जिक्र करना रह गया और वो था शकुनी का पुरस्कार लौटाना। अब ये न समझ लेना की शकुनी की काबीलियत पुरस्कार पाने की ना थी। कुटिलता में शकुनी उतना ही चतुर था जितना चतुर आचार्य चाणक्य थे, अंतर सिर्फ इतना था एक अपने भांजे की हार के लिए कुटिलता खेल रहा था और दूसरा अपने शिष्य की विजय के लिए।
संध्या बेला का समय था, दुर्योधन और कर्ण बगीचे में बैठकर पांडवों की चुगलखोरी कर रहें थे। सूर्य देव भी लगभग लगभग अलविदा कहने के लिए तैयार थे, कल उन्हें फिर आना है तो आजा का जाना भी जरूरी है और फिर कमिटमेंट नाम की भी कोई चीज होती है। पंछी अपने घोंसले की तरफ चले जा रहे थे और उसी समय शकुनी का बगीचे में आगमन हुआ। दुर्योधन और कर्ण ने मामा श्री को प्रणाम किया। शकुनी से आने के प्रयोजन पूछे जाने पर, "शकुनी ने अपनी साहित्य कला का परिचय देना शुरू किया।" शकुनी ने दुर्योधन और कर्ण को एक गीत सुनाना शुरू किया।
"दु:खी मन मेरे,
सुन मेरा कहेना,
जहाँ नही नैना,
वहाँ नही रहना"
शकुनी ने ये पंक्ति अपनी दासी नैना के वियोग में लिखी थी। जो कुछ दिन पहले किसी नवयुवक के प्यार में पागल हो गई थी और फिर उसके साथ भाग गई। राजदरबार में इस मामले पर मुकदमा दर्ज हो गया था क्योंकि शकुनी की दासी के जन्म प्रमाण पत्र के अनुसार वो २५ साल की नही हुई थी। हा हा जानता हूँ लड़की अठारह के बाद अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। हस्थिनापुर में भी यही नियम था लेकिन दासी के भागने के बाद शकुनी ने कपट करके नियम में बदलाव कर दिया।
दुर्योधन और कर्ण भी शकुनी का दु:ख समझते थे इसलिए उन्होंने शकुनी का ध्यान नैना से भटकाने के लिए कहा, "मामा जी आपकी शब्दों पर पकड़ लाजवाब है। आपको अधिक से अधिक कविताएँ लिखनी चाहिए। आपकी कविताओं के हिसाब से हम आपके लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार की मांग करेंगे।"
"लेकिन भांजे साहित्य अकादमी पुरस्कार चयन कमिटी का मुखिया तो स्वयं भीष्म हैं और उनके चलते हमे कोई पुरस्कार नही देगा।"
"मामा जी आप इस बात की चिंता ना करे हम लॅाबिंग करके आपको पुरस्कार दिलवादेंगे।"
इस घटना के बाद शकुनी ने नैना से नैन हटाकर कविता की तरफ अपना रुख किया वो बात अलग है यदि कोई लड़की कविता मिल जाती तो शकुनी कविता लिखना बंद कर देते। शकुनी की कुछ प्रमुख कविताएँ और गीत इस प्रकार है।
चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर रे।
भीगे होठ तेरे, प्यासा दिल मेरा।
हमका हाऊ चाही, हमका हाऊ चाही।
बुढ़िया मलाई खाला, बुढ़वा खाल लपसी।
दुर्योधन और कर्ण भी शकुनी का दिल रखने के लिए हर गीत की तारीफ कर देते थे। लेकिन बहुत कोशिश और लॅाबिंग करने के बावजूद शकुनी को कोई भी पुरस्कार नही मिला।
लक्षाग्रह दुर्घटना के बाद
दुर्योधन अब हस्थिनापुर की गद्दी पर बैठने के लिए तैयार था। काम का प्रेशर बढ़ने के कारण भीष्म में साहित्य अकादमी पुरस्कार चयन समिति का पद छोड़ दिया। दुर्योधन ने उस पद पर अपने पागल भाई को बिठा दिया। देखते ही देखते कुछ दिनों में शकुनी को साहित्य अकादमी ने उनके साहित्य में किये लाजवाब योगदान के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
शकुनी की कविताएँ और जोर पकड़ती उससे पहले पांडव जीवित होकर सबके सामने आ चुके थे। दुर्योधन ने पांडवों को पांच गांव देने से इनकार कर दिया था और कौरवों-पांडवों के बीच का युद्ध लगभग तय हो गया था।
युद्ध के शुरू होने के बाद हर दिन कौरवों का कोई ना कोई बड़ा योद्धा मारा जाता लेकिन एक दिन कौरवों की सेना ने अभिमन्यु को घेरकर उसे निहत्था रहने के बावजूद मार दिया। एक अभिमन्यु को आधा दर्जन से अधिक लोगों ने घेर था। अभिमन्यु की हत्या के बाद पार्थ ने दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा ली और वध ना करने पर स्वयं का अग्निदाह करने का प्रण लिया।
दूसरे दिन युद्ध भूमि में जयद्रथ का कही भी अता पता नही था। शाम होने को कुछ पहर बाकी थे तो केशव को एक युक्ति सूझी, केशव ने अपनी लीला से सूर्यास्त समय से पहले कर दिया और सूर्यास्त होने के बाद जब जयद्रथ सामने आया तो केशव ने अपनी लीला हटा दी जिससे सूर्यास्त होने का वहम हट गया और फिर पार्थ ने जयद्रथ का वध कर दिया।
शकुनी ने जयद्रथ की हत्या को हस्थिनापुर के इतिहास में एक काला दिन बताया। केशव और पार्थ के इस षड्यंत्र की तुलना उन्होंने भविष्य में स्वर्गीय इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल से की। केशव ने अपने शक्ति का दुरुपयोग किया है, अभिमन्यु की हत्या तो युद्ध नीति थी परंतु जयद्रथ का वध सेकुलर समाज के खिलाफ साजिश थी, ऐसी ही कई तर्कों के साथ शकुनी ने अपना एक मात्र साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया।
धन्यवाद
@पुरानीबस्ती
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इस व्यंग्य पर अपनी टिप्पणी हमे देना ना भूलें। अगले सोमवार फिर मिलेंगे एक नए व्यंग्य के साथ।
Hahaha bahut badhiya, mazaa aa gaya, keep up d gud work bhai :)
ReplyDeleteधन्यवाद शुभांश
DeleteJardast bhai chha gaye aap........gud work
ReplyDeleteधन्यवाद भाई, आते रहिये और पढ़ते रहिये
DeleteSir ji, thanks for accepting my suggestion. Shows that you are not arrogant :P God spede.
ReplyDeleteअरे मित्र अपना नाम बता दे और अगली बार से प्रोफ्फ रीड कर दिया करें। मेरा काम आसान हो जायेगा।
DeleteBura mat maniye, par itane achche likhe huye main aise mamuli galtiyan dekh par sara dhyaan wahin atak jata hai... Shayad badhati intolerance ka natija hai :D
Deleteइसलिए तो पता माँगा आपका, अगली बार से प्रूफ रीड कर देंगे तो गलतियां निकल जाएँगी
Deleteबकवास है ,व्यंग्य तो कही से नहीं
ReplyDeleteहो सकता है नहीं हो, वैसे कुछ लोग सूरज को भी तारा नहीं मानते :)
Deleteलाजवाब ..........
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुपर।।।।जवाब नहीं अति उत्तम
ReplyDeleteधन्यवाद, आते रहिये पढ़ते रहिये
Deleteबहुत सटीक व्यंग...
ReplyDeleteधन्यवाद शर्मा जी
Deleteसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
बहुत बहुत धन्यवाद, कोशिश रहेगी की और बढ़िया लिख सकें
Deleteव्यंग्य में व्यंग्य न लगना...
ReplyDeleteटिप्पणियों में भी राजनिति...
हाहाहा...
क्या करें भाई, करना पड़ता है :)
DeleteThough i have not much interest in epic stories but ur prose makea it interesti g.Good work. God bless u.
ReplyDeleteधन्यवाद ज्ञान, प्रयत्न रहेगा की आपकी रूचि बरक़रार रहे
DeleteThough i have not much interest in epic stories but ur prose makea it interesti g.Good work. God bless u.
ReplyDeleteअच्छा लिखा है थोड़ा वर्तमान से जोड़ते तो मजा आता....
ReplyDeleteबहुत पुराना है, आपने आज पढ़ा
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