कल रात
एक नज्म का खयाल आया था,
मैं लिखता
उन्हें किसी पन्ने पर,
उससे पहले
वो दफना कर मुझको चली गई।
सुबह से कोशिश कर रहा हूँ,
कुछ शब्द यदि याद आ जाएं,
तो नज्म को जैसे तैसे पूरा कर लूंगा।
लिख दूंगा तुम्हारी कुछ,
कभी ना हुई मुलाकातें,
वो सपने जिसमें,
हम दिनभर बगीचों में घूमा करते थे।
नज्म शुरू हुई तो खतम भी होनी है,
तुम्हारी निकाह की रात
और
मेरा तारों को गिनते गिनते उंगली जला लेना।
कबूल थी मुझे तुम,
और
मैं भी तुम्हें कबूल था,
बस वो मौलवी पढ़ न सका
हमारा निकाहनामा।
तुम्हें यकीन था,
हम जरुर मिलेंगे,
मुझे यकीन है नज्म,
मुझसे जरुर मिलेगी।
सुना है खुश हो,
अपने शौहर के साथ उस महल में,
अच्छा ही हुआ,
मेरे यहाँ बस इतनी सी जगह है,
या तो नज्म सो जाए,
या मैं पसर सकता हूँ।
अभी रात बाकी,
नज्म आज आएगी,
हो सका तो
निकालेगी मुझे कब्र से,
फिर सांसे लेकर नज्म लिखूंगा।
धन्यवाद
@पुरानीबस्ती
इस कविता पर अपनी टिप्पणी हमे देना ना भूलें। अगले सोमवार/गुरुवार फिर मिलेंगे एक नए व्यंग्य/कविता के साथ।
बहुत अच्छा लिखते है आप । बहुत सुंदर रचना । मेरी ब्लॊग पर आप का स्वागत है ।
ReplyDeleteधन्यवाद, जरुर आयेंगे
Deleteबहुत खूब। बहुत ही सुंदर रचना की प्रस्तुति। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteधन्यवाद, जरुर आयेंगे
Deleteऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
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