भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में लोगों का बीमारी, आतंकवादी हमले, दंगा फसद से मारना आम बात है। आजादी के पहले भी लोग उपरोक्त कारणों से मरते रहें हैं और आजादी के बाद भी मर रहें हैं। कभी कभी तो लगता है भारत को कृषि प्रधान देश की पदवी से हटाकर जन्म और मृत्यु प्रधान देश बना देना चाहिए। वैसे भी खाने पीने की वस्तुओं की महँगाई देखकर हमें कृषि प्रधान देश कहलाने का कोई हक भी नही है।
वैसे हम भारत की सभी समस्याओं का जिम्मेदार भारत के नेताओं को मानते हैं परंतु मौका मिलने पर हम भी कानून को जितना बन पड़े उतना तोड़कर अपना लाभ निकालने की कोशिश करते हैं। आज का व्यंग्य उसी मुद्दे पर है। लिखने से पहले ही लगा कि ये व्यंग्य किसान विरोधी हो सकता है इसलिए जिन्हें किसानों से बहुत प्यार है वो ना पढ़े लेकिन फिर लगा कि किसान विरोधी नही समाज विरोधी है इसलिए आप लोगों को पढ़ना चाहिए।
उतपात प्रदेश के कुछ इलाकों में पिछले कुछ साल से बे मौसम बरसात के चलते किसानों की फसल बरबाद हो रही थी। इसी के चलते किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा था और तभी हौसिला प्रसाद ने कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या कर ली। मुद्दे ने तुरंत राजनैतिक रंग पकड़ लिया और आनन फानन में राज्य सरकार ने आत्महत्या करनेवालों किसानों के लिए राहत राशि की घोषणा कर दी। हौसिला प्रसाद के परिवार को कुछ हजार रुपये मिल गए और किसानों को आत्महत्या का लाभ दिखने लगा।
जान की फिक्र जात की फिक्र से अधिक होती है। आत्महत्या करने के लिए जो कलेजा चाहिए वो सबके पास नही होता। इसलिए आत्महत्या की लहर उठने के बाद ही तुरंत मुँह के बल गिर पड़ी। वही कुछ महीनों बाद गांव के पचास साल के बग्गड़ दादा की मृत्यु अचानक से हो गई। बग्गड़ दादा बहुत गरीब थे और आठ बच्चों के परिवार के धनी उनके जाने के बाद परिवार का लालन पालन कैसे होगा। गांव के प्रधान ने गांव वालों को एक युक्ति सुझाई, क्यों ना बग्गड़ दादा की मौत को आत्महत्या करार दे दिया जाए, इससे उनके घर वालों को सरकार की तरफ से पैसा मिल जाएगा और परिवार का भी भला हो जाएगा।
बग्गड़ दादा की मौत को आत्महत्या जैसा दिखने का इंतजाम हो गया, जिला कलेक्टर के आने पर गांव वालों ने आत्महत्या के पीछे की सारी कहानी बयान कर दी। लेकिन जिला कलेक्टर ने भी कच्ची कौड़ियाँ नही खेली थी परंतु मृत्यु तो हुई थी और यदि उसे आत्महत्या बताने से गरीब का भला हो तो भलाई में क्या बुराई है और ऊपर से वो भलाई तो सबसे बेहतरीन है जिसमें अपना एक पैसा भी ना लगे। वो कहावत है ना रंग लगे ना फिटकिरी और रंग भी चोखा हो जाए।
बग्गड़ दादा की मौत आत्महत्या घोषित होने के बाद गांव की सभी मौतें आत्महत्या में तबदील हो गई। धीरे धीरे जिले में इस योजना का लाभ उठाकर गरीबों की भलाई का चलन जोर पकड़ने लगा। अब हाल ये है कि जो नेता सबसे अधिक आत्महत्या की फाइल बनवा सकता है वो उतने अधिक मतो से चुनाव जीत सकता है। ऐसा नही है कि किसान अब उतपात प्रदेश में आत्महत्या नही करते हैं लेकिन उसकी असल दर आत्महत्या की फाइलों से कम है।
इस रचना पर आपकी टिप्पणी जरूर दे। हर सोमवार/गुरुवार हम आपसे एक नया व्यंग्य/कविता लेकर मिलेंगे।
उफ़ ....बहुत ही करारा और सटीक ...इस प्रवृत्ति का दूसरा पहलू दिखाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका
ReplyDeleteधन्यवाद झा साहब ! लेकिन बहुत से लोग इस दूसरे पहलू को देखना ही नहीं चाहते हैं
Deleteआज के हालात बहुत ही सटीक तरिके से व्यक्त किए है आपने। बधाई।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत प्रभावशाली लेखन......बहुत बहुत बधाई.....
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteप्रभावशाली लेखन
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
DeleteSahi avlokan hai.Sikke ka 1 pahlu yah bhi hai.
ReplyDeleteAbhar
धन्यवाद, बहुत कम लोग ही इस बात को समझ पायें हैं
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