कलाई की घड़ी को,
आज बड़े प्यार से उतारा,
और उसकी कुंजी को खींचकर
एक असफल प्रयास किया,
घड़ी को रोकने का।
फिर भी जब ना मानी घड़ी,
तो,
चटकाकर उसका कांच,
कुछ घावों से,
उसकी एक सूई को तोड़ दिया,
घड़ी भी जिद्दी किस्म की है,
रुकने का नाम नही है लेती।
कितना मुश्किल है,
वक्त को पकड़कर रखना,
या बांधना उसे किसी वाकिये के साथ,
कुछ बिगड़ेगा क्या उसका,
यदि वो कुछ देर ठहर जायेगा तो।
आखिर में एक सूई को,
पकड़कर मोड़ दिया,
कुछ इस तरह की,
अटक जाये वो वक्त वही,
मैं उन लम्हों को महसूस करता रहूँ।
वो लम्हा जहाँ मैं कुछ भी नही,
लेकिन गम भी नही,
मेरे कुछ ना होने का,
अब अटाकर समय को,
मैं मौज मनाऊँगा।
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बहुत ही लाजवाब, कमल भाई मैंने कभी सपने मे भी नही सोचा था कि घड़ी पर भी ऐसी दिल को झकझोर देने वाली कविता लिखी जा सकती है। बेहद उम्दा।
ReplyDeleteधन्यवाद शुभांश, ये टिप्पणी पढ़कर लग रहा है की बस अब लिखना छोड़ दूँ :)
Deleteवाह कमल भाई, अफवाहों और व्यंग से हटकर ये रूप एकदम अनोखा है. बेहतरीन...
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteआखिर में एक सूई को,
ReplyDeleteपकड़कर मोड़ दिया,
कुछ इस तरह की,
अटक जाये वो वक्त वही,
बेहद खूबसूरत भाव्…………दिल मे उतर गयी रचना जनाब :))
धन्यवाद संजय जी
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