समंदर की कुछ बूंदों से बात की,
वो भी अपने वजूद को लेकर व्याकुल हैं,
विशाल समंदर में कहा कोई उनकी है सुनता,
जबकि उनसे ही समंदर है,
उनके बिना समंदर बस मरुस्थल है।
बूंदें दिन रात प्रयत्न करती हैं,
एक बूंद दूसरे को आगे ढकेलकर,
समंदर का वजूद कायम रखती हैं,
उनको एहसास है अपने होने का,
लेकिन
समंदर हर बार इस बात को भूल जाता है।
सोचों अगर बूंदें विद्रोह कर दें,
बनाकर दोस्त सूरज को,
ऊपर आकाश में बादल से मिल जायें,
हो सकता है दोस्ती धरा से कर लें,
उसके गर्त में समा जायें,
सूख जायेगा समंदर,
बूंदों का वजूद तो हमेशा बना रहेगा।
समंदर को अभिमान किस बात का,
क्या पता ?
क्या उसे नही पता?
किसने किया उसका वजूद कायम,
मिट जायेगा एक दिन,
बस बूंदों को कदम विद्रोह का उठाना है।
आपकी टिप्पणी हमारे लिए भारतरत्न से भी बढ़कर है इसलिए आपकी टिप्पणी कमेंट बॉक्स में लिखना न भूलें।
हर सोमवार/गुरुवार हम आपसे एक नया व्यंग्य/कविता लेकर मिलेंगे।
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteधन्यवाद, आते रहिएगा
Deleteबहुत सुन्दर भावों को संजोया है
ReplyDeleteधन्यवाद
Delete