सोचो गर बोलियाँ एक सी होती,
कितनी सरल-संजीदा जिंदगी होती।
हम सब भी कोयल की तरह कूक भरते,
कभी कौए की तरह काँव काँव चिल्लाते।
हम सुनते-समझते सभी जीवों को,
सभी के दु:ख को पार लगाते।
कटते पेड़ आह जो भरते,
हमको व्यथित कर जाते।
झरने की कलरव से पहाड़ की कथा समझ पाते,
भरकर पानी अपनी चुल्लू में कुछ मदद उसे कर आते।
घूमते दुनियाँ जी भर के,
सभी को अपनी बोली से प्यार जताते।
कुछ तो बंट गई है मानवता,
इन बोलियों की विविधता से।
हम दूर देश में खाना बदोश हो जाते,
सबके मनोरंजन का लुत्फ उठाते।
कुछ तो बंद हो जाते झगड़े,
भाषा के नाम पर जो होते हैं।
हंसते-गाते, मौज उठाते,
जीवन को आनंद बनाते।
सोचो गर बोलियाँ एक सी होती,
कितनी सरल-संजीदा जिंदगी होती।
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