badge पुरानीबस्ती : #कविता - अम्माँ का चेहरा
चाँद भी कंबल ओढ़े निकला था,सितारे ठिठुर रहें थे,सर्दी बढ़ रही थी,ठंड से बचने के लिए, मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।

Thursday, April 21, 2016

#कविता - अम्माँ का चेहरा




जब मैं छोटा था तो अम्मा रोज सुबह जगाती थी,

हर दिन उठकर उसका ही चेहरा नजर आता था,
गालों को खींचकर बिस्तर से उठाती थी।

धीरे - धीरे जब मैं बड़ा हुआ,
कभी - कभी अम्मा का चेहरा सुबह नही दिखता था,
वो दिन हमेशा बुरा ही कटता था।

एक दिन जब छोटे चाचा का चेहरा देख लिया था,
मास्टर जी ने डांट बताई थी,
अब रोज सुबह उठकर अम्मा का चेहरा ढूंढा करता था।

एक रोज सपने पनप रहे थे,
जब नींद से जागा तो अम्मा मुस्कुरा रही थी,
गया जब साहब को मिलने,
तरक्की सलाम फरमा रही थी।

अब दूर देश से जाना था,
अम्मा का साथ नामुमकिन था,
अम्मा से अब दूरियाँ बढ़ती जा रही थी।

उस रोज सफर में खुद पर गुस्सा आ रहा था,
क्यों देखा उस दिन अम्मा का चेहरा सोचकर पछता रहा था।

2 comments:

  1. बड़ी मर्मस्पर्शी रचना है ... माँ से ये सार संसार है
    बहुत अच्छा लगा आपका ब्लॉग पढ़कर ..

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