badge पुरानीबस्ती : #कविता - सतह पर पनपती काई
चाँद भी कंबल ओढ़े निकला था,सितारे ठिठुर रहें थे,सर्दी बढ़ रही थी,ठंड से बचने के लिए, मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।

Monday, May 23, 2016

#कविता - सतह पर पनपती काई




सतह पर पनपती काई भी 

अब डर रही है, 
सूरज ज्यों ज्यों बढ़ेगा 
उसका वजूद खत्म होगा,

पनपती काई के नीचे 
कुछ जलचरों का आशियाँ था,
उनके घर की फिक्र भी 
अब बढ़ने लगी है,

चमकता सुरजा 
जो खुशियों को लेकर आता है,
काई के जीवन में तो 
बस दुख भर देगा,

अभी तो कुछ दिन पहले ही,
संजोया था घर उसने अपना,
बड़ी जतन से ताना था
कुछ सुनहरी यादों को छत पर।

बरसात ने खूब भिगाया उसे,
ढकेला कई बार यहाँ से वहाँ,
काई ने छोड़ा नही
संघर्ष जीवन का।

ठंड के दिन अच्छे गुजरें,
जलचर भी
उसे तैराते
रोज नये नग्में सुनाते।

लेकिन

सतह पर पनपती काई भी 
अब डर रही है, 
सूरज ज्यों ज्यों बढ़ेगा 
उसका वजूद खत्म होगा,

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