badge पुरानीबस्ती : #कविता - रेल के पत्थर
चाँद भी कंबल ओढ़े निकला था,सितारे ठिठुर रहें थे,सर्दी बढ़ रही थी,ठंड से बचने के लिए, मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।

Monday, June 13, 2016

#कविता - रेल के पत्थर




एक रेल गुजर रही थी,

पटरी के पत्थर कांप रहें थे।

रेल गुजरने के बाद खुश थे पत्थर सारे,
गम के बीतने की खुशियाँ मना रहें थे,
तभी दूर एक और रेल के आने की आहट मिली,
पत्थर फिर कांपने लगे डर से,
रेल फिर गुजरी उन्हें बिखरा दिया,
सुबह कुछ लोगों ने फावड़े से खींचकर,
उन पत्थरों को फिर पटरी की तरफ ढकेल दिया।

पत्थर फिर रेल के इंतजार में हैं,
एक दिन वो फूटकर धूल में मिल जायेंगे,
इस हवा से पैदा हुए,
इस हवा में फिर मिल जायेंगे।

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