पप्पू पांडे हमेशा से विवादों में घिरे रहें। ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बाद भी उनके ऊपर कई बार अंडा सेवन का इल्जाम लगता रहा। एक - दो बार तो गांव के गढ़हे से लापता खरहों (खरगोश) को भी पप्पू पांडे का पूरक आहार मान लिया गया।
दिन भर चौराहे पर खड़े होकर लोगों अपने ज्ञान से लताड़ना और फिर उनसे झगड़ा करना ही पप्पू पांडे का प्रथम कर्तव्य था। हर गली में दुश्मन रखने वाले पप्पू पांडे को दुश्मनी करने में वही आनंद आता था जो बाबा भारती को अपने घोड़े को देखकर आता था।
अचानक से पप्पू पांडे ने नेता बनने का निर्णय लिया। सभी ने समझाया नेता बनकर करोगे क्या? और पहली बात नेता बनोगे कैसे? इस मोहल्ले में तो हर किसी से तो तुम्हारा झगड़ा हुआ है। पप्पू पांडे ने लोगों की बात ना मानते हुए नेता बनने का निर्णय कायम रखा।
प्रधानी के चुनाव में पप्पू पांडे ने अपनी किस्मत आजमाने का निर्णय लिया और चुनाव परिणाम ने उन्हें अपना गांव छोड़ने पर बेबस कर दिया। लोग सोच रहें थे कि पप्पू पांडे को कम से कम एक वोट तो मिलना चाहिए था। पप्पू पांडे ने अपना वोट स्वयं को दिया था परंतु बैलेट पेपर गलत तरह से मोड़कर डालने पर उनका वोट निरस्त कर दिया गया।
कुछ सालों बाद।
पप्पू पांडे एक राजनीतिक पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर सांसद बन चुके थे और उन्हें सूचना प्रसार मंत्री भी बना दिया गया। पप्पू पांडे को कुछ भी नहीं आता था परंतु "उन्हें झूठ बोलना आता था और इसके अलावा नेता बनने को क्या चाहिए?"
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