जैसे यह उजड़े हुए चकोर के टूटे हुए पंख हैं जो चाँद के पास पहुँचते-पहुँचते टूट गए और गिर रहे हैं, और हवा के हर हल्के झोंके के आघात से पथ-विचलित हो जाते हैं। सच तो यह है कि इनकी न कोई दिशा है, न पथ, न लक्ष्य, न प्रयास और न कोई प्रगति क्योंकि पतन को, नीचे गिरने को प्रगति तो नहीं कहते!
'मैं महसूस करता था कि मैं अन्य लोगों से कुछ अलग हूँ, मेरा व्यक्तित्व अनोखा है, अद्वितीय है और समाज मुझे समझ नहीं सकता। साधारण लोग अत्यंत साधारण हैं, मेरी प्रतिभा के स्तर से बहुत नीचे हैं, मैं उन्हें जिस तरह चाहूँ बहका सकता हूँ।
मुझमें अपने व्यक्तित्व के प्रति एक अनावश्यक मोह, उसकी विकृतियों को भी प्रतिभा का तेज समझने का भ्रम और अपनी असामाजिकता को भी अपनी ईमानदारी समझने का अनावश्यक दंभ आ गया था। धीरे-धीरे मैं अपने ही को इतना प्यार करने लगा कि मेरे मन के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवालें खड़ी हो गईं और मैं स्वयं अपने अहंकार में बंदी हो गया, पर इसका नशा मुझ पर इतना तीखा था कि मैं कभी अपनी असली स्थिति पहचान नहीं पाया।'
जो प्रेम समाज की प्रगति और व्यक्ति के विकास का सहायक नहीं बन सकता वह निरर्थक है।
- धर्मवीर भारती
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... शानदार पोस्ट .... Nice article with awesome depiction!! :) :)
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