badge पुरानीबस्ती : #​कविता ​- दरख़्तों ने भी अब विद्रोह किया
चाँद भी कंबल ओढ़े निकला था,सितारे ठिठुर रहें थे,सर्दी बढ़ रही थी,ठंड से बचने के लिए, मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।

Sunday, March 27, 2016

#​कविता ​- दरख़्तों ने भी अब विद्रोह किया





दरख़्तों ने भी अब विद्रोह किया है,




कब तक धूँआ फूँककर फेफड़े जलाएंगे।





जब तुम्हें फिक्र नही है अपनी,


हम कब तक दमे का मर्ज सहते जाएंगे।





लगते थे कुछ फल हमपर,


अब वो भी बेमौसम गिरते जाएंगे।





यदि ना बदली अपनी रोजमर्रा की आदत,


हम भी सूखकर एक दिन मर जाएंगे।





कुछ फिर पनपने की कोशिश करेंगे,


कुछ पनपते ही कुर्बान हो जाएंगे।





ताकीद कर रहें तुमसे संभल जाओ,


हम कब तक अपने फेफड़े जलाएंगे।


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