दरख़्तों ने भी अब विद्रोह किया है,
कब तक धूँआ फूँककर फेफड़े जलाएंगे।
जब तुम्हें फिक्र नही है अपनी,
हम कब तक दमे का मर्ज सहते जाएंगे।
लगते थे कुछ फल हमपर,
अब वो भी बेमौसम गिरते जाएंगे।
यदि ना बदली अपनी रोजमर्रा की आदत,
हम भी सूखकर एक दिन मर जाएंगे।
कुछ फिर पनपने की कोशिश करेंगे,
कुछ पनपते ही कुर्बान हो जाएंगे।
ताकीद कर रहें तुमसे संभल जाओ,
हम कब तक अपने फेफड़े जलाएंगे।
सुंदर प्रस्तुति।
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