कलकत्ता के एक बाजार में,
उस बंगालन को
बालकनी से झांकते देखा,
कभी रहती थी,
हमारे मोहल्ले में,
ना जाने कैसे बदल गई,
उसकी किस्मत की रेखा।
मैं जब शाम को
स्कूल से घर आता,
उसे उसके घर से
कुछ दूर खड़ा पाता,
वो हर बार कहती,
वो हर बार कहती,
आमी तोमाय एक्टा कोथा बोलतेय चाय,
मैं शरमाकर, सरपट दौड़ लगाता।
एक दिन सड़क किनारे,
खड़ी होकर रो रही थी,
कुछ बोला नही उस रोज,
हाथ की मेहंदी उठाकर दिखा दी,
दिन,समय सब तय था,
बस डोली उठने की राह देखती।
उसकी आप बीती समझनी थी मुझे,
घर से एक रात काम का बहाना,
बनाकर निकल गया
उसके कोठे की तरफ,
बड़ी हिम्मत लगी,
उन लकड़ी के जीनों पर चढ़ने में,
मैं कदम एक बढ़ाता
और
जैसे जीना दो कदम बढ़ जाता।
लड़खड़ाते कदमों से,
पहुंच गया उसके कमरे तक,
नजर जो मिली हमारी,
दोनों शर्मिंदा थे इस हालत पे,
केवाड़ की सिटकनी लगी,
हम एक बिस्तर पर बैठ गए।
जिक्र होना था,
होंठ हिलने को तैयार ना थे।
उसके बाबा ने ब्याह को ढोंग किया,
उसे डोली में कोठे के लिए विदा कर दिया,
बाबा को पैसे मिले खूब,
इज्जत पर भी कोई आँच ना आई।
मैं ब्याह करना चाहता था उससे,
मैंने दिन तय किया
उसे ले जाने का,
तारीख पर पहुँचा तो
जनाज उठ रहा था उसका,
एक खत छोड़ा था मेरे नाम,
तुम्हारी बंगालन
तुम्हारे लायक नही रही।
कुछ यो ही
बदल जाती जिंदगी,
समाज में कई अबलाओं की,
बिक जाती हैं,
सरे आम और किसी को खबर भी नहीं होती।
धन्यवाद
@पुरानीबस्ती
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बहुत ही सरल और साधारण शब्दों में असाधारण भाव प्रस्तुत किए आपने। बहुत ही सुन्दर। कविता का अन्त तो जैसे मन में उठने वाली विचार भँवरी का आरम्भ सा ही है मानो।
ReplyDeleteकुँवर जी।
बहुत बहुत धन्यवाद, कोशिश रहेगी की और बढ़िया लिख सकें
Deleteबड़ी साफगोई से मोहल्ले से कोठे तक का सफ़र बयां हुआ है।
ReplyDeleteइससे बचने का उपाय भी आप ही सुझायेंगे...
इतना आसान नहीं है
Deleteजय मां हाटेशवरी....
ReplyDeleteआप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 13/12/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
धन्यवाद, उम्मीद करतें हैं हमारे अन्य रचनाओं को भी ये सौभाग्य प्राप्त हो
Deleteकौन लिखता है आजकल सामाजिक विषयों पर , कलम जब से बाजार में बिकना शुरू हुई है लेखन भी बिकने लगा है,ऐसे में आपके लेख पढ़ना हमारा सौभाग्य है........पुरानी बस्ती की जितनी तारीफ़ की जाये कम है...
ReplyDeleteधन्यवाद,
DeleteBahut marmik...jindgi kab kaise kis raah pr chal padti hai..aurto ko pata bhi nahi chalta.
ReplyDeleteइसी का नाम तो जिंदगी है
Deleteकहर मचा दिया ! रूपरेखा ग़ज़ब है !
ReplyDeleteधन्यवाद
Deletenyce poem brother.
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद गौरव, आते रहिएगा
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