एक कविता ने बरसात की बूंदों के बाद,
मिट्टी से बाहर झाँककर आँखें खोली,
धीरे - धीरे खड़ी हुई वो
और फिर पंख फैलाये,
हवा को पसंद नही आया उसका होना,
अपने थपेड़ों से
रोज उस कविता को गिराने की कोशिश करती,
कविता भी रोज गिरते-पड़ते खड़ी हो जाती,
धीरे – धीरे बढ़ने लगी वो आकाश की जानिब,
अब हवा उसके साथ खेलने लगी,
कुछ दिन पहले कुछ लोग काट ले गए उसे,
हवा को मैंने यार के बिछड़ने पर आँसू बहाते देखा।
फिर होगी बरसात,
अब उस पल का इंतजार है,
जब एक नई कविता फिर जन्म लेगी।
सुन्दर।
ReplyDeleteधन्यवाद
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