चाँद भी कंबल ओढ़े निकला था,
सितारे ठिठुर रहें थे,
सर्दी बढ़ रही थी,
ठंड से बचने के लिए,
मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।
कुछ रिश्ते
जो बस नाम के बचे थे,
खींच रहा था
मैं उनको
कभी वो मुझे खींचा करते थे।
सर्दी बढ़ रही थी,
ठंड से बचने के लिए,
मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।
कुछ रिश्ते
बहुत कमजोर हो चले थे,
उनकी लपट भी बहुत कम थी,
कुछ इतने पतले
की जलने से पहले राख हो गए।
सर्दी बढ़ रही थी,
ठंड से बचने के लिए,
मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।
कुछ पुराने रिश्ते थे,
मेरे जनम के पहले के,
सजोया था उन्हें मैंने,
उन्हें नही था कोई लगाव मुझसे।
सर्दी बढ़ रही थी,
ठंड से बचने के लिए,
मुझे भी कुछ रिश्ते जलाने पड़े।
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कुछ रिश्ते
ReplyDeleteबहुत कमजोर हो चले थे,
उनकी लपट भी बहुत कम थी,
कुछ इतने पतले
की जलने से पहले राख हो गए।
वाह खूब कही
धन्यवाद
Deleteबहोत बढ़िया भई 👍
ReplyDeleteधन्यवाद चेतन भाई
Deleteअच्छी....पर कुछ रिश्ते जलाने पड़े पंक्ति का दोहराव नहीं होता तो एक छोटी नज़्म के तौर पर उत्कृष्ट हो जाती
ReplyDeleteहो सकता है, आप उन पंक्त्तियों को हटाकर पढ़ ले
DeletePadhey! Achhi hai. (Bas thodi si Gulzar saab ki chhaap hai varna bahut achhi kahte.)
ReplyDeleteधन्यवाद, गुलज़ार साहब प्रेरणा स्रोत हैं तो उनकी छाप होना लाजमी है।
Deleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत खूबसूरत अहसास समेटे ये पोस्ट लाजवाब है |
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुन्दर 👍
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