वो कबूतर जो रोज मेरी छत पर आते थे,
आज दिखे नहीं,
वो टीवी का जो एन्टिना लगाया है,
उससे चकमा खा गए होंगे।
सुना है,
टीवी ने कई रिश्ते उधेड़ दिए,
लोग साथ बैठकर तकते हैं डब्बे में,
उन्हें फुरसत नही कुछ बातें करने की।
वो अंताकछड़ी जो खेलते थे,
और आतंक मचाते थे,
दादा जी की वो मीठी गालियाँ,
फिल्मी गानों की तर्ज पर,
वो दब गई है टीवी की आवाज में।
धीरे-धीरे लोगों को टीवी के किरदार याद हो रहें हैं,
कहानियाँ किरदारों की रट ली है लोगों ने,
अब फोन पर भी बात करते हैं तो
उन किरदारों का जिक्र होता है।
कबूतर आज नही तो कल
फिर से छत का अंदाज समझ जायेंगे,
लेकिन,
वो उधड़ते रिश्ते कब फिर जुड़ेंगे।
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