आज एक नए सफर पर निकलना हैं,
आज फिर कुछ अपने पीछे छूट जाएंगे,
वो पान वाला बनवारी,
कितने प्यार से
कत्थे और चूने को मिलकर पाना बनाता था।
चाय की दुकान पर घंटों बैठे रहना,
वहाँ जो चाचा जी एक आते थे,
अपनी बहु की बहुत बुराइयाँ बतियाते थे।
कुछ पेड़ भी नाराज हैं,
जिनके नीचे बैठकर मैं लिखता था,
उन्हें अब कौन नई नज्में सुनाएगा।
वो शर्मा नाई,
जो हर बार खत गलत कर देता था,
जाने के नाम पर उसकी आँखें डब डबा गई।
वो मंदिर, वो गिरजाघर, वो मस्जिद की दीवारें,
वो मंदिर, वो गिरजाघर, वो मस्जिद की दीवारें,
बहुत खुश होंगी,
आपस में बतियाती थी,
जाने किस धर्म का नास्तिक है,
कभी हमारी तरफ रुख नहीं करता।
शायद आप मेरे रिश्तों का जिक्र ढूंढ रहें होंगे,
उन्हें तो उस दिन ही अलविदा कहा दिया था,
जिस दिन सफर का समान बांधा था।
आज एक नए सफर पर निकलना हैं,
आज फिर कुछ अपने पीछे छूट जाएंगे,
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