आज शाख से टूटते पत्ते
कुछ गुनगुना रहें थे,
अभी जमीन पर गिरे नही
लेकिन कब्रगाह का जिक्र था,
शाखाओं ने भी शोर मचाया,
कहा,
कब्र नही चिता बनेगी,
शाखाओं ने भी सीख लिया,
कब्र और चिता का फरक,
मजहबी रंग इंसानियत से बढ़कर,
अब आगे बढ़ निकले हैं,
शाखाओं और पत्तों ने भी,
अब अपना मजहब चुन लिया है।
कुछ पत्ते अधर्मी हैं,
कहते हैं,
ना चिता बनेंगे,
ना दफ्न होंगे कब्र में,
हम इस फिज़ा की औलादें हैं,
इस फिज़ा में कही खाक हो जायेंगे।
बहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत सुन्दर......
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteकहीं गहरे उतरते शब्द ... नि:शब्द ही करते हैं !
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteमनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए है। बढ़िया रचना है।बधाई।
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